व्यापार और भूमंडलीकरण – Trade and Globalisation
व्यापार और भूमंडलीकरण

(Illustration)
भूमिका:
- विश्व बाजार की अवधारणा आधुनिक युग में विकसित हुई, लेकिन इसके संकेत प्राचीन काल से ही मिलते हैं।
- सिन्धु घाटी सभ्यता का व्यापार प्राचीन मिश्र और मेसोपोटामिया के साथ होता था।
- प्राचीन व्यापारिक केंद्रों में दिलमुन (आधुनिक बहरीन) और मेंलुहा (मकरान तट) प्रमुख थे।
- सिकंदर द्वारा स्थापित अलेक्जेंड्रिया व्यापारिक दृष्टि से तीन महाद्वीपों (अफ्रीका, एशिया, यूरोप) का केंद्र बना।
महत्वपूर्ण घटनाएँ –
1. वाणिज्यिक क्रांति:
- 15वीं से 17वीं शताब्दी के बीच व्यापारिक मार्गों और आर्थिक गतिविधियों का तेजी से विस्तार हुआ।
- इस क्रांति ने व्यापार को वैश्विक स्तर पर विस्तृत किया, जिससे यूरोप, विशेषकर इंग्लैंड, इसका प्रमुख केंद्र बन गया।
2. औद्योगिक क्रांति:
- वाष्पशक्ति और मशीनों के उपयोग से बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ।
- औद्योगिक क्रांति ने वस्त्र, धातु, और अन्य वस्तुओं के उत्पादन को गति दी, जिससे वैश्विक व्यापार को नई दिशा मिली।
3. भौगोलिक खोजें:
- कोलंबस और वास्को-डी-गामा जैसे खोजकर्ताओं ने नए व्यापारिक मार्गों और क्षेत्रों की खोज की।
- व्यापारिक मार्गों की खोज ने एशिया, यूरोप और अमेरिका के बीच आर्थिक संबंध मजबूत किए।
4. राष्ट्रीय राज्यों का उदय:
- राष्ट्रीय राज्यों के निर्माण ने संगठित व्यापार और बाजार प्रणाली को बढ़ावा दिया।
- औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित होने के साथ, व्यापार का दायरा और विस्तृत हुआ।
विश्व बाजार का विकास:
- औद्योगिक क्रांति ने बाजार को आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बना दिया।
- वैश्विक बाजार ने महादेशों को एक दूसरे के साथ जोड़ा और नए व्यापारिक केंद्रों का निर्माण हुआ।
- मुंबई जैसे शहर वैश्विक बाजार के आधुनिक उदाहरण हैं, जहां विश्वभर की वस्तुएं उपलब्ध हैं।
निष्कर्ष:
- व्यापार और भूमंडलीकरण ने प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक विश्व को आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से जोड़ने का काम किया।
- औद्योगिक और वाणिज्यिक क्रांतियों ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की नींव रखी, जिससे आज का वैश्विक बाजार संभव हो पाया।
(क) विश्वबाजार का स्वरूप और विस्तार:
औद्योगिक उत्पादन का विस्तार:
- 18वीं सदी के मध्य से इंग्लैंड में वाष्प इंजन से संचालित बड़े कारखानों में वस्तुओं
का उत्पादन शुरू हुआ। - उत्पादन के बढ़ते स्तर ने कच्चे माल और नए बाजारों की आवश्यकता बढ़ाई।
- इंग्लैंड ने उत्तर अमेरिका, एशिया (भारत), और अफ्रीका में कच्चे माल की खोज और बाजार की स्थापना की।
उपनिवेशवाद का उदय:
- संसाधनों और बाजारों पर स्थाई अधिकार स्थापित करने के प्रयास ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया।
- मैनचेस्टर, लिवरपुल, और लंदन जैसे बड़े व्यापारिक केंद्रों का विकास हुआ।
- उपनिवेशवाद का मुख्य उद्देश्य आर्थिक शोषण था।
कपड़ा उद्योग का आधार:
- विश्व बाजार का प्रारंभिक स्वरूप मुख्यतः कपड़ा उद्योग पर आधारित था।
- इंग्लैंड के कपड़ा उत्पाद पूरे विश्व में निर्यात किए जाते थे।
औद्योगिक क्रांति और आर्थिक गतिविधियाँ:
- औद्योगिक क्रांति के प्रसार ने तीन प्रमुख आर्थिक गतिविधियों को जन्म दिया :-
- कच्चे माल का व्यापार।
- श्रमिकों का प्रवास।
- पूंजी का प्रवाह।
गिरमिटिया मजदूर:
- भारत के भोजपुरी, पंजाब और हरियाणा क्षेत्रों से मजदूरों को समझौते के तहत अन्य देशों में भेजा गया।
- इन मजदूरों को मुख्यतः गन्ना, चाय, और तंबाकू की खेती में लगाया जाता था।
पूंजी का प्रवाह:
- यूरोपीय देशों ने औपनिवेशिक क्षेत्रों में रेल, खदानों, और नगदी फसलों में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश किया।
- उपनिवेशों की अर्थव्यवस्था यूरोप पर निर्भर हो गई।
यूरोप-केंद्रित अर्थतंत्र:
- इन प्रक्रियाओं ने यूरोप को केंद्र में रखकर एक वैश्विक आर्थिक तंत्र का निर्माण किया।
- यह तंत्र विश्व बाजार का आधार बना।
(ख) विश्व बाजार की उपयोगिता
1. आर्थिक स्वतंत्रता:
- बाजार के वैश्विक स्वरूप ने आर्थिक गतिविधियों को स्वतंत्र रूप से संचालित करने में मदद की।
- व्यापारियों, श्रमिकों, पूंजीपतियों और उपभोक्ताओं के हित सुरक्षित हुए।
2. किसानों को बेहतर लाभ:
- अधिक प्रतिस्पर्धा के कारण किसानों को अपनी उपज की उचित कीमत प्राप्त हुई।
3. रोजगार के अवसर:
- वैश्विक बाजार ने रोजगार के नए अवसरों का सृजन किया।
4. श्रमिकों की पहचान:
- कुशल श्रमिकों को वैश्विक स्तर पर पहचान और आर्थिक लाभ मिला।
5. आधुनिक विचारों का प्रसार:
- वैश्विक बाजार ने आधुनिक विचारधारा और चेतना के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
(ग) विश्व बाजार के लाभ और हानि
लाभ –
1. व्यापार और उद्योग का विकास:
- व्यापार और उद्योग की तीव्र वृद्धि से तीन शक्तिशाली सामाजिक वर्गों का जन्म हुआ: पूंजीपति, मजदूर, और मध्यम वर्ग।
2. आधुनिक बैंकिंग का विकास:
- विश्व बाजार ने आधुनिक बैंकिंग प्रणाली के उदय और विकास को प्रोत्साहित किया।
3. संरचनात्मक प्रगति:
- उपनिवेशों में रेल, सड़क, बंदरगाह, खनन, और बागवानी का विकास हुआ।
4. कृषि क्रांति:
- तंबाकू, रबड़, कॉफी, नील, और गन्ने जैसी फसलों का उत्पादन बढ़ा।
- दक्षिण अमेरिका और मैक्सिको में कृषि क्षेत्र में बड़े परिवर्तन हुए।
5. नई तकनीक का विकास:
- रेलवे, वाष्प इंजन, टेलीग्राफ, और जलपोत जैसी तकनीकों ने व्यापार को सरल बनाया।
- 1820 से 1914 के बीच विश्व व्यापार में 25 से 40 गुना वृद्धि हुई।
6. शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि:
- शहरीकरण और जनसंख्या में वृद्धि वैश्विक व्यापार का सकारात्मक परिणाम था।
हानि –
1. उपनिवेशवाद और शोषण:
- विश्व बाजार ने एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को बढ़ावा दिया।
- स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं और कुटीर उद्योगों का व्यवस्थित विनाश हुआ।
2. आर्थिक असंतुलन:
- भारत जैसे उपनिवेशों का शोषण बढ़ा, जैसे कपड़ा उद्योग का ह्रास और कच्चे माल का बढ़ता निर्यात।
3. मानवीय संकट:
- अकाल, भुखमरी, और गरीबी ने कई मानवीय त्रासदियों को जन्म दिया।
- 1850 से 1920 के बीच भारत में बड़े अकालों में लाखों लोगों की मृत्यु हुई।
4. साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा:
- यूरोपीय देशों के बीच प्रतिस्पर्धा और उग्र राष्ट्रवाद ने प्रथम विश्व युद्ध जैसे संकट को जन्म दिया।
- युद्ध ने सभ्यता को व्यापक नुकसान पहुंचाया।
दो महायुद्धों के दरम्यान व्यापार और अर्थव्यवस्था:
प्रथम महायुद्ध का प्रभाव:
- यूरोप की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई।
- ब्रिटेन और अन्य प्रमुख देशों जैसे जर्मनी, फ्रांस, और इटली की अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव पड़ा।
- विपरीत रूप से, अमेरिका और औपनिवेशिक देशों की अर्थव्यवस्था का विकास हुआ।
अमेरिका की भूमिका:
- अमेरिका ने यूरोप की पुनर्निर्माण प्रक्रिया में सहायता की।
- 1920-1927 के बीच यूरोप और अमेरिका में आर्थिक प्रगति हुई।
- अमेरिका में कृषि, आवास, और मोटरकार उद्योग जैसे क्षेत्रों में तीव्र वृद्धि हुई।
(क) आर्थिक मंदी के कारण:
1. उत्पादन और मांग में असंतुलन:
- उत्पादन बढ़ा, लेकिन खरीददारों की संख्या कम थी।
- कृषि क्षेत्र में अति-उत्पादन से कीमतें गिरीं।
2. कृषि उत्पादों की समस्या:
- गिरती कीमतों ने किसानों की आय घटा दी।
- अधिक उत्पादन के कारण बाजार में उत्पाद सड़ने लगे।
3. कर्ज की समस्या:
- अमेरिका से कर्ज लेकर यूरोपीय देशों ने अर्थव्यवस्था को सुधारा।
- संकट के संकेत मिलते ही अमेरिका ने कर्ज की मांग की, जिससे यूरोपीय बैंकों का पतन हुआ।
4. सस्ते अनाज की चुनौती:
- कनाडा, रूस, और अन्य उपनिवेशों के सस्ते अनाज ने यूरोपीय कृषि को तबाह कर दिया।
सट्टेबाजी:
- शेयर बाजार में सट्टेबाजी ने संकट को बढ़ाया।
- न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज (वाल स्ट्रीट) में गिरावट ने आर्थिक मंदी को प्रकट किया।
मुख्य परिणाम:
- वैश्विक आर्थिक व्यवस्था प्रभावित हुई।
- यूरोपीय कृषि अर्थव्यवस्था कमजोर हो गई।
- संरक्षणवादी नीतियों और आर्थिक राष्ट्रवाद ने विश्व व्यापार को नुकसान पहुंचाया।
(ख) आर्थिक मंदी का प्रभाव:
(1) अमेरिका पर प्रभाव:
- बैंकों ने कर्ज देना बंद कर दिया, वसूली तेज हो गई।
- किसान अपनी उपज बेचने में असफल रहे और बर्बाद हो गए।
- कारोबार ठप पड़ने से बेरोजगारी और कंपनियों का पतन हुआ।
- 1933 तक 4000 बैंक और 1,10,000 कंपनियाँ बंद हो गईं।
- लोग अपनी संपत्ति गँवाकर सड़क पर आ गए।
(2) अन्य देशों पर प्रभाव:-
- जर्मनी:
- युद्ध हर्जाना और मुद्रा का अवमूल्यन।
- 1929 की मंदी से 60 लाख लोग बेरोजगार हुए।
- अराजकता का लाभ उठाकर हिटलर सत्ता में आया।
- ब्रिटेन:
- उत्पादन, निर्यात, और जीवनस्तर में गिरावट।
- लगभग 35 लाख लोग बेरोजगार हुए।
- संरक्षणवाद के कारण वैश्विक व्यापार प्रभावित।
- फ्रांस:
- युद्ध हर्जाना से बचाव।
(3) भारत पर प्रभाव:
- आयात-निर्यात 1928-1934 के बीच आधा हो गया।
- गेहूँ की कीमत 50% गिर गई।
- ग्रामीण किसान शहरी लोगों से अधिक प्रभावित हुए।
- अंग्रेज सरकार ने लगान दर नहीं घटाई, किसानों में असंतोष बढ़ा।
- नगदी फसल के किसानों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा।
- पहली बार भारत से सोने का निर्यात शुरू हुआ।
- मंदी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रारंभ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
संरक्षणवाद:
- विदेशी वस्तुओं पर ऊँचे आयात शुल्क लगाकर घरेलू उद्योगों को संरक्षण देना।
(ग) विश्व बाजार के आलोक में बदलते अंतर्राष्ट्रीय संबंध:
1920-1929: आर्थिक समृद्धि और विकास
- यूरोप का प्रभाव घटा, लेकिन उपनिवेशों पर पकड़ बनी रही।
- अमेरिका, जापान और रूस नई आर्थिक शक्तियाँ बनीं।
- अमेरिका में औद्योगिक विस्तार, लेकिन आर्थिक शक्ति कुछ हाथों में सिमटी।
- रूस ने नई आर्थिक व्यवस्था प्रचारित की।
- जापान ने साम्राज्यवादी नीतियों से चीन पर आक्रमण किया।
- भारत और औपनिवेशिक देशों में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार।
(2) 1929 के बाद: महामंदी का प्रभाव
- अमेरिका में ‘न्यू डील’ नीति लागू।
- जनकल्याण योजनाएँ, रोजगार बढ़ाने और व्यापार नियमन के उपाय।
- कृषि और उद्योग में संतुलन लाने का प्रयास।
- यूरोप में कड़ा मुद्रा नियंत्रण, क्षेत्रीय प्रवंधन (ओस्लो गुट), और व्यापार समझौते (ओटावा समझौता)।
- लंदन सम्मेलन (1933): संरक्षणवाद समाप्त कर व्यापार सहयोग की बात, लेकिन असफल।
(3) राजनैतिक बदलाव:
- रूस: साम्यवादी व्यवस्था का आकर्षण बढ़ा।
- इटली और जर्मनी:
- अधिनायकवादी शासन का उदय।
- लोकतंत्र की विफलता और तानाशाही का विस्तार।
- तानाशाही ने द्वितीय विश्व युद्ध को अवश्यमभावी बना दिया।
नए शब्द:
- न्यू डील: जनकल्याणकारी आर्थिक और प्रशासनिक नीति।
- अधिनायकवाद: राजनैतिक व्यवस्था जिसमें शक्ति एक व्यक्ति के हाथ में केंद्रित।
1950 के दशक के बाद परिवर्तन:
द्वितीय महायुद्ध के बाद पुनर्निर्माण:
- याल्टा सम्मेलन (1945): युद्ध से हुई तबाही से निपटने के लिए प्रयास।
- संयुक्त राष्ट्र संघ और उसकी संस्थाएँ (यूनेस्को, WHO, ILO, आदि) सक्रिय।
- पुनर्निर्माण मुख्यतः अमेरिका और सोवियत संघ के साए में।
आर्थिक अनुभव और युद्धोत्तर विचार:
- 1929 की महामंदी से सबक:
- बाजार आधारित अर्थव्यवस्था उपभोग के बिना अस्थिर।
- सरकार को आर्थिक नियंत्रण के लिए सशक्त बनाना आवश्यक।
- आर्थिक स्थिरता और पूर्ण रोजगार विश्वशांति के लिए आवश्यक माने गए।
ब्रेटन वुड्स सम्मेलन (1944):
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF): मुद्रा स्थिरता और आर्थिक सहयोग के लिए।
- विश्व बैंक: युद्धोत्तर पुनर्निर्माण और विकास के लिए।
- इन संस्थानों को “जुड़वा संतान” कहा गया।
- इन दोनों पर अमेरिका का वर्चस्व रहा, जिसका उपयोग वह अपनी आर्थिक नीतियों के लिए करता है।
1945 से 1960 के दशक के बीच अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध
1. द्वि-ध्रुवीय विश्व का उदय:
साम्यवादी गुट:
- नेतृत्व: सोवियत रूस।
- राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था।
- पूर्वी यूरोप, उत्तर कोरिया और वियतनाम में सफल प्रभाव।
- भारत जैसे देशों पर आंशिक प्रभाव।
पूंजीवादी गुट:
- नेतृत्व: संयुक्त राज्य अमेरिका।
- बाजार और मुनाफा आधारित अर्थव्यवस्था।
- तेल और गैस संपन्न देश:
- मध्य/पश्चिम एशिया पर प्रभाव (इराक, इरान, सऊदी अरब, आदि)।
- इजराइल का निर्माण और समर्थन।
- दक्षिण अमेरिका: CIA के माध्यम से शक्ति स्थापित की।
2. पश्चिमी यूरोप में आर्थिक संबंध:
उपनिवेशों का अंत (1970 तक):
- एशिया-अफ्रीका के उपनिवेश स्वतंत्र।
यूरोपीय एकीकरण:
- 1944: बेनेलेक्स संघ (नीदरलैंड, बेल्जियम, लक्ज़मबर्ग)।
- 1957: यूरोपीय आर्थिक समुदाय (EEC) की स्थापना।
- ग्रेट ब्रिटेन 1960 में शामिल।
अमेरिका का प्रभाव:
- पुनर्निर्माण के लिए आर्थिक सहायता।
3. एशिया और अफ्रीका के नवस्वतंत्र देश:
नव स्वतंत्रता:
- भारत की आजादी (1947) के बाद स्वतंत्रता लहर।
दोनों गुटों का प्रभाव:
- अमेरिका: विश्व बैंक और IMF के माध्यम से सहायता।
- रूस: विचारधारा और राजनैतिक सहयोग।
- बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सहयोग (उदाहरण: भारत का लौह-इस्पात उद्योग)।
विशेष ध्यान:
- अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा: आर्थिक सहयोग के माध्यम से शक्ति प्रदर्शन।
- नव स्वतंत्र देशों में विकास और निर्भरता दोनों का दौर।
भूमंडलीकरण: आज के जीविकोपार्जन और भूमंडलीकरण का अंतर्साम्य
भूमंडलीकरण की परिभाषा:- भूमंडलीकरण एक प्रक्रिया है जो राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक जीवन को विश्व स्तर पर समायोजित करती है। यह भौतिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर विश्व के विभिन्न भागों के लोगों को जोड़ती है।
प्रभाव:
- वेश-भूषा और खान-पान में समानता।
- दुनिया “एक बड़े गाँव” के रूप में।
इतिहास और उदय:
1. प्राचीन जड़ें:
- मानव इतिहास के आरंभ से ही भूमंडलीकरण का प्रभाव।
2. आधुनिक पूँजीवाद:
- 15वीं-16वीं शताब्दी: पूँजीवाद के साथ जुड़ा।
- 19वीं शताब्दी: पूँजी का निर्यात और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार बढ़ा।
19वीं शताब्दी के मध्य से प्रथम विश्वयुद्ध:
- वस्तुओं, पूँजी और श्रम का अंतर्राष्ट्रीय प्रवाह।
- तकनीकी विकास ने योगदान दिया।
1914 से 1991:
- भूमंडलीकरण की प्रक्रिया धीमी।
कारण:
- दो विश्व युद्ध।
- साम्यवादी क्रांति और शीत युद्ध।
- उपनिवेशवाद का अंत।
- नव स्वतंत्र देशों द्वारा संसाधन संरक्षण।
- 1929 की महामंदी: व्यापार और पूँजी का प्रवाह रुका।
1991 के बाद:
- सोवियत गुट के पतन के बाद भूमंडलीकरण का नया स्वरूप।
- जॉन विलियमसन (1990) ने ‘भूमंडलीकरण’ शब्द का पहला प्रयोग किया।
मुख्य योगदानकर्ता:
1. अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं:
- विश्व बैंक।
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF)।
- विश्व व्यापार संगठन (WTO, 1995)।
2. बहुराष्ट्रीय कंपनियां:
- विभिन्न देशों में व्यापार।
3. क्षेत्रीय संगठन:
- जी-8, यूरोपीय संघ, दक्षेस (सार्क)।
जीविकोपार्जन पर प्रभाव:
- रोजगार के नए अवसर।
- नई तकनीकों का प्रसार।
- वैश्विक व्यापार का विस्तार।
निष्कर्ष:
- भूमंडलीकरण ने विश्व को आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आज जीविकोपार्जन और भूमंडलीकरण का अंतर्सम्बन्ध:
भूमंडलीकरण और आर्थिक प्रभाव:
- भूमंडलीकरण के प्रभाव को आर्थिक क्षेत्र में विशेष रूप से देखा जा सकता है। शीत युद्ध के बाद से सैनिक शक्ति को आर्थिक शक्ति द्वारा पीछे छोड़ दिया गया। अब किसी भी देश की शक्ति का आकलन उसके हथियारों या सैनिकों से नहीं, बल्कि नागरिकों की समझ के आधार पर किया जाता है।
मुख्य तत्व:
- मुक्त बाजार, मुक्त व्यापार, खुली प्रतिस्पर्धा।
- बहुराष्ट्रीय निगमों का प्रसार, उद्योग और सेवा क्षेत्र का निजीकरण।
- लक्ष्य: विश्व को एक मुक्त व्यापार क्षेत्र में परिवर्तित करना।
- प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठनों और क्षेत्रीय संघों की भूमिका।
जीविकोपार्जन पर भूमंडलीकरण का प्रभाव:
भूमंडलीकरण ने सेवा क्षेत्र में तीव्र विस्तार किया है, जिससे रोजगार के नए अवसर पैदा हुए हैं। सेवा क्षेत्र में विभिन्न गतिविधियाँ शामिल हैं:-
- यातायात (बस, हवाई जहाज, टैक्सी)।
- बैंकिंग और बीमा क्षेत्र।
- सूचना तकनीक (मोबाइल, इंटरनेट)।
- होटल और रेस्टोरेंट।
- शॉपिंग मॉल और कॉल सेंटर।
नवीन रोजगार अवसर:
- मोबाइल और संबंधित सेवाओं के लिए दुकानें।
- निजी कंपनियों और बैंकों का विस्तार।
- बिहार और भारत के पर्यटक स्थलों के आस-पास रोजगार के अवसर।
- सूचना और संचार क्षेत्र में रोजगार।
निष्कर्ष:
- भूमंडलीकरण ने नई सेवाओं और रोजगार के अवसरों का निर्माण किया है, जिससे लोगों का जीवन स्तर बढ़ा है और जीवीकोपार्जन में वृद्धि हुई है।
- आज के दौर में यह आर्थिक भूमंडलीकरण और जीवकोपार्जन के बीच गहरा संबंध है।
विश्व अर्थतंत्र और अमेरिका का प्रभाव:
- 1919 के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस का प्रभाव बढ़ा, जो द्वितीय महायुद्ध के बाद विश्व व्यापार और राजनीति में निर्णायक बन गया।
- 1991 के बाद अमेरिका केंद्रित विश्व अर्थव्यवस्था ने भूमंडलीकरण और उदारीकरण को बढ़ावा दिया।
- अमेरिका का डॉलर अब विश्व की मानक मुद्रा बन चुका है, और उसकी कंपनियों को दुनिया भर में कार्य करने की अनुमति है।
नवीन आर्थिक साम्राज्यवाद:
- भूमंडलीकरण ने अमेरिका के नवीन आर्थिक साम्राज्यवाद को जन्म दिया, जिसका प्रभाव सम्पूर्ण विश्व में महसूस किया जा रहा है।